उत्तराखण्ड हिमालय को विशाल बाँध परियोजनाओं से बाँधने और तीर्थों पर भोगवादी पर्यटक के मनसूबों पर कहर बनकर टूटी आपदा से सरकार के लिए एक बार फिर हिमालय की रक्षा के लिए चिन्तन जरूरी हो गया है। यदि सरकारें अभी भी नहीं चेती तो एक दिन स्वयं प्रकृति भोग और अतिक्रमण को हटाते हुए हिमालय के भूगोल को बदल डालेगी, जो मानव के अस्तित्व रक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती होगी।
उत्तराखण्ड में हाल में आयी आपदा से 6 से 10 हजार मौतों के ताण्डव की घटना किसी जल प्रलय से कम नहीं थी। प्रस्तुत लेख उत्तराखण्ड में आयी आपदा से कुछ दिन पूर्व लिखा गया था। इससे आपदा से उत्पन्न होने वाले खतरों के प्रति लेखक द्वारा पहले से ही आगाह किया जा चुका था। (सम्पादक)
भोगवादी संस्कृति और बाजार के तेजी से पसरते पाँवों के कारण हिमालय के प्रमुख तीर्थों को पर्यटन की दौड में शामिल करने के लिए इन्हें साल भर खोले जाने की मांग की जाती रही है, किन्तु चार धामों से अंधाधुंध धन कमाने की लालसा से हमारे इन तीर्थों का अस्थित्व खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है।
उत्तराखण्ड में तीर्थ और पर्यटन की स्पष्ट स्थिति और सीमाएँ न होने के कारण आज गंगोत्री, यमुनोत्री हो या बदरी-केदार धाम, यात्रियों की बढ़ती भीड पर्यटन के नाम पर होटल और धर्मशालाएँ नादियों के तट पर जा पहुँचे हैं। जिनका सीवरेज सीधे गंगा में जा रहा है, यात्रा मार्गों पर भी पर्याप्त शौचालय न होने और सैलानियों की बढ़ती भीड़ से चार धाम मार्ग की सड़कें और नदी नाले भी खुले शौच के कारण गंधला गये हैं। यदि शीघ्र ही इस ओर कोई ठोस नीति न बनाई गई तो तीर्थों की महत्ता और पवित्रता पर ग्रहण लग जायेगा।
सुप्रसिद्ध पर्वतारोही और भारत में न्यूजीलैण्ड़ के पर्व राजदूत एडमण्ड हिलेरी ने सन् 1987 में योजना आयोग की बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में उत्तराखण्ड़ के लिए स्पष्ट तौर पर कहा कि उत्तराखण्ड विशेष गढ़वाल हिमालय को उसकी सम्वेदनशीलता और पवित्रता को देखते हुए पर्यटन से आय कमाने का जरिया न बनाया जाय। सन् 1978 गंगा सागर से हिमालय तक की यात्रा जिसे उन्होंने ओसन टु स्काई नाम दिया था, इस अभियान के अन्तर्गत हिलेरी को नन्दप्रयाग में निरन्तर तेज जल धाराओं में उनकी बोट्स (नाव) डूब जाने के कारण अभियान समाप्त करना पड़ा था। इस अभियान के बाद उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि हिमालय की भू-गर्भीय संवेदनशीलता को देखते हुए कहा था कि प्रकृति के साथ मानवीय दबाओं को कम करते हुए छेड़-छाड़ नहीं की जानी चाहिए। दुर्भाग्य से हिलेरी की इस नसीयत को हमारे योजनाकारों ने भुलाकर गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक जिस तरह होटल व्यवसाय के लिए तीर्थों को हनीमून स्पाॅट बना दिया है उसके चलते आस्थाओं के साथ ही तीर्थ-प्रकृति और उसकी जल धाराओं का अस्तित्व भी सिमटने लगा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो कभी प्रकृति स्वयं आपदा के जरिए ताण्ड़व न दिखा दे इससे सचेत होने की जरूरत है।
उत्तराखण्ड की पारिस्थिकीय को देखते हुए चार धामों की यात्रा को ऋषिकेश से ही पंजीकरण कर नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता है। अमरनाथ यात्रा की तरह चार धाम यात्रा को नियोजित एवं तरणवद तरीके से संचालित किये जाने की आवश्यकता है। हर वर्ष सैलानियों की बड़ती भीड़ और अनियंत्रित वाहनों की भारी उपस्थिति का वनज हमारी सड़कें नहीं उठा पा रही हैं। भू-स्खलन के कारण निरन्तर डेन्जर जौन बढ़ते जा रहा हैं। हज़ यात्रा की तरह धार्मिक तीर्थ स्थानों पर्र इंट-पत्थर के स्थान पर टैण्ट काॅलोनियों को प्राथमिकता दी जाय। समूचे यात्रा मार्ग के निकट नदियों की 500 मीटर की परिधि में निर्माण कार्यों को प्रतिबन्धित किया जाय। ताकि उनका सीवरेज किसी भी दशा में नदियों को प्रदूशित न करे। हिमाचल की तर्ज पर उत्तराखण्ड में आने वाले यात्रियों से ग्रीन शुल्क के रूप में प्रवेश लिया जा सकता है। चार धामों को इक्को संसिटिव जोन में साम्मिलित कर ईंट गारे से निर्मित भवनों पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगाया जाए। पैदल यात्रियों के लिए यात्रा मार्गों पर आधुनिक तकनीक के शौचालय बनाए जायें। इसके अतिरिक्त नये पर्यटन सर्किट के रूप में हरिद्वार-ऋषिकेश से यात्रा प्रारम्भ पर वापसी में इसे कर्णप्रयाग-गैरसैंण के रास्ते हल्द्वानी तक विकसित किया जा सकता है। ऐसा करके हम यातायात को नियंत्रित करने के साथ ही कुमाऊँ-गढ़वाल के अनछुवे तीर्थ एवं पर्यटन स्थलों से सैलानियों को जोड़कर जनता को रोजगार भी दे सकते हैं।
डाॅ॰ योगेश धस्माना
मो॰: 9456706323