Himalaya Landslides and Sustainable Development
हिमालय और भूस्खलन एवं संन्तुलित विकास “ उत्तराखण्ड एक नजर” डा0 सुनीत नैथानी
भुर्गभ विज्ञानियों के अनुसार हिमालय अभी भी अपनी शिशु अवस्था में है। यह संसार की नवीनतम पर्वत श्रंखलाओं में से एक है। वैज्ञानिकों के अनुसार वलित पर्वतों का निर्माण मध्य मायोसीन काल में हुआ। जो आज भी अपने अन्दर जनित आन्तरिक बलों के प्रभाव से क्रियाशील है। यह सुन्दर हिमालय अपने आप में मृदु, अस्थिर एवं विवर्तनिक गतिविधियों (प्लेट टेक्टोनिक) से युक्त है। इसके अभी भी कई रहस्य जानने बाकी हैं। इन्हीं प्राकृतिक कारणों की वजह से एवं मानवीय हस्तक्षेपों की बढोत्तरी के फलस्वरुप सुन्दर एवं अस्थिर हिमालय जहाँ कहीं भूस्खलनों की मार झेल रहा है जो मानव सभ्यता ही नहीं वरन् प्र्यावरणीय एवं पारिस्थितिक दृष्टिकोण से चुनौती बने हुये हैं।
भूस्खलन मुख्यतः विर्वतनिक गतिविधियों की वजह से होते हैं। हिमालय की उत्पत्ती के सन्दर्भ में प्लेट टेक्टोनिक थ्योरी का महत्वपूर्ण योगदान है तथा प्रकिृतजन्य भूस्खलनों का होना इस तथ्य को प्रमाणित करता है, वैसे तो हिमालय में भूर्गभीय हलचलों एवम् उससे उत्पन्न होने वाले विनाश का इतिहास तो बहुत पुराना है पर प्रस्तुत लेख में विगत कुछ ही वर्षों के उदाहराणों को उद्धृत कर हिमालय में हो रही विभिषिका का अन्दाजा लगाया जा सकता है। उदाहरर्णाथ: 1952 में शुरु कलियासौड भूस्खलन, उत्तर पश्चिम हिमालय पर चीला गढवाल के समीप 1990 में किनवानी भेल क्षेत्र में जमीन का उठना, और अगस्त 1998 के 11 से 19 अगस्त के बीच के मालपा एवं ऊखीमढ क्षेत्र के भूस्खलनो द्वारा तबाही। उपरोक्त भूस्खलन भुर्गभीय हलचलों से प्रभावित थे पर सडक निर्माण एवं अचानक आयी त्वरित बारिश ने इन भूस्खलनों को बढावा दिया। फलस्वरुप 1998 में ही मालपा एवं ऊखीमठ में करीब 400 लोग इसकी भेंट चढ गये। साथ ही 422 मवेशी, 820 घर एवं 412 हेक्टेयर खेती युक्त जमीन से हाथ धोना पडा। अकेले ऊखीमठ क्षेत्र में करीब 9752 लोग प्रभावित हुये। माना कि इन भूस्खलनों में ज्यादा योगदान भूर्गभीय हलचलों (प्लेट विर्वतनिकी) एवं वर्षा का था पर अव्यवस्थित मानवीय हस्तक्षेपों जैसे सडक निर्माण एवं आवासीय परिसरों का सही चयन न होना भी क्षति का एक कारण है।
आज मानवीय विकास बनाम सडक निर्माण, शहरीकरण अथवा विकास के नाम पर हस्तक्षेपों से इनकी तीव्रता को बढावा मिला है। आज हिमालय में कटे फटे जंगलों की स्थिति यह है जैसे अधखुली नंगी, बीमार, जर्जर मां, बावजूद इसके वही मानव का एक बच्चे के समान उदर पूर्ति कर रही है। मानवीय हस्तक्षेपों से बढ रहे भूस्खलनों का प्रबल उदाहरण कलियासौड भूस्खलन है जो 1952 में शुरु होकर आज करीब 300 मीटर फैल चुका है। वहीं दूसरी ओर भावर क्षेत्रों र्में िशवालिक पहाडियों के ऊपरी जंगलों में बढ रहे भूस्खलन अत्यधिक वन दोहन को जीता जागता उदाहरण हैं। उत्तरांचल की तलहटी में बसे शहरों जैसे देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार, रामनगर आदि में बरसात के मौसम में सडकों पर आये तलछटीय जमाव की बढती तीव्रता को देखते हुये क्षेत्र के भविष्य एवं स्वरुप का अंदाज लगाया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि यह क्षेत्र घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं।
पहाड़ो की विकट समस्या, बढते भूस्खलन एवं उनके ऊपर तथा तलहटी में स्थित गावों का भविष्य भी अपने आप में एक प्रश्न है। भूर्गभीय हलचलों के चलते पुराने भूस्खलित क्षेत्रों पर बसे गावों के भविष्य पर भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। अगर प्राकृतिक संसाधनों का इस क्रियाशील हिमालय पर इसी तरह दोहन होता रहा तो नदी घाटी की सभ्यतायें जैसे उत्तरकाशी, कालसी, डाकपत्थर, चमोली, श्रीनगर, ऋषिकेश एवं हरिद्वार कस्बे/शहरों का भविष्य भी खतरे में पड सकता हैं। यहां तक की नदियों पर बन रहे निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित बांधों के भविष्य पर भी प्रश्न चिन्ह लग सकता है क्योंकि हिमालय पर भूस्खलनों के अलावा सडक निर्माण की गतिविधियों से करोडों घन मीटर मलवा निकल कर नदियों में अवसाद के रुप में बह रहा है अथवा एकत्र हो रहा है इससे जनित समस्याओं का अनुमान बाधों की घोषित आयु के पुर्नआकंलन मे उनकी आयु में आयी कमी से लगाया जा सकता है। उदाहरर्णाथः भाखड़ा बांध (पंजाब)
प्रकृतिजन्य /मानव निर्मित भूस्खलन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन हेतु प्रारम्भ बिन्दु जरूर हैं पर मानव मूल्य पर नही। भूस्खलित पहाड़ों की सुरक्षा हेतु ग्रमीण सहयोग से वृक्षारोपण, योजनाओं का क्रियान्वयन, अवैध खदानों पर रोक एवम् पुर्ण वैज्ञानिक आँकड़ों के साथ विकास की ओर बढ़ना होगा। संस्कृत का अधोलिखित श्लोक भी यही संदेश देता प्रतीत होता है- “रक्षये प्रकृति पातुंलोका” अर्थात हे विश्व के लोगों प्रकृति का संरक्षण करते हुये इस का उपयोग करों। आज जरूरत है प्रकृति के साथ सामन्जस्य बना कर विकास को गति देने की तभी हिमालय पर विकास के नाम पर प्रकृतिजन्य / मानव निर्मित भूस्खलनो, भूमि धंसाव एवम् बाढ़ आदि की तीव्रताओं पर अंकुश लग सकता है अन्यथा भविष्य मे हिमालय पर खतरा गहराता चला जायेगा। सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र में हजारों छोटे बड़े जल संग्रहण क्षेत्र हैं एक कम समय पर अत्याधिक वर्षा का होना किसी क्षेत्र बिशेष के स्थानीय मौसम परिवर्तन का द्योतक है और परिणाम स्वरूप बादल फटता है जिसकी तीव्रता बढ़ रही है अतः सूक्ष्म मौसम विज्ञान केन्द्र हर बड़े जल संग्रहण क्षेत्र में लगने चाहिये। जिससेे आगामी भविष्य की आकड़ों के आधार पर एक सुदृढ़ योजना बनायी जा सकेगी अतः इसी प्रकार भूस्खलन एवं हिमस्खलन के भी आकड़ो का प्रबन्धन पर जोर देना होगा।ंसरकार द्वारा जितना भी निर्माण कार्य हो रहा है चाहे वो इन्दिरा आवास हो या फिर कोई भी बड़ा विकास कार्य उन सभी को भूकम्प रोधी मांनकों के तहत बनाया जा सकता है। इस कार्य में दृढ़ इच्छा शक्ति, चेतना, विचार एवं नैतिकता का समावेश होना जरूरी है। क्योंकि उत्तराखण्ड में वर्तमान आपदा के दौरान ज्यादा यात्री मरे पर ध्वस्त या बर्बाद उत्तराखण्ड का घर एवं कष्ट भोगने के लिए वहां के लोग बचे जिसे सुधारने में बरसों लग जायेगे हम लगातार अपनो को खोयेंगे। यहां आने वाले पर्यटक एवं परिवार प्रदूषण के नाम पर इतने ऊंचाईयों के नालों एवं गधेरों पर पालीथिन बैग एवं अन्य प्लास्टिक प्रदूषण का जमावाड़ा देखने को मिल रहा है।
डा0 सुनीत नैथानी