Will Rehabilitation Based Development In Uttarakhand Check Migration From The Hills

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विस्थापित जनित विकास से:  क्या पलायन को रोक सकेगा?

बाजारवाद के दौर में भूमि और जल संसाधनों पर इस वक्त निजि कम्पनियों की सर्वाधिक गिद्द दृष्टि है। ऊर्जा के बाद सड़क परिवहन और संचार के रूप में ढ़ाँचागत सुविधाओं की बढ़ती आवश्यकता के चलते भूमि और जल संसाधनों के तेजी से अधिग्रहण के सवाल पर पहाड़ से लेकर मैदान तक किसान उबल रहे हैं।

समूचे देश में टिहरी की विशाल बाँध परियोजना के निर्माण के बाद विकास बनाम जन असन्तोष से एक नए किस्म का किसान आन्दोलन का जन्म हुआ है। टिहरी बाँध से जल विद्युत सिंचाई और पेयजल योजनाओं को पर्यावरण क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों और स्थानीय जनता के हक-हकूम को छीन जाने से जन असन्तोष का सामना करना पड़ा। इसी तरह नर्वदाघाटी में बनने वाले बाँधों के खिलाफ 1985 में नर्वदा बचाओ आन्दोलन में बैनर के तहत मेघा पाटेकर और बाबा आम्टे ने जन आन्दोलन का नेतृत्व किया बंगाल के नन्दीग्राम में नवम्बर 2007 में इण्ड़ोनेशिया की एक कम्पनी सक्रिय ग्रुप के स्पेशल एकाॅनिक जोन जमीन के आहरण विभाग में पुलिस के साथ हुए संघर्ष में 14 व्यक्तियों की जाने गई। इसी तरह सिंगूर (बंगाल) टाटा की नैनो का प्लांट गुजरात के आणंद में स्थानान्तरित करना पड़ा।

कश्मीर सरकार द्वारा अमरनाथ के साइन बोर्ड़ 99 एकड़ जमीन देने के विरोध में पाँच लाख प्रदर्शनकारी सड़कों पर उत्तर आए हिंसा में कुल 07 लोग मारे गए और 100 से अधिक लोग घायल हुए। इसी तरह महाराष्ट्र के जैतापुर में परमाणु प्लान लगाए जाने का विरोध उस वक्त हिंसक हो गया। जब जापान में सूनामी के बाद आए भूकम्प ने परमाणु रिक्टरों से देश में विकीरण का खतरा अधिक बढ़ने से सरकार ने देश के सभी 10 परमाणु रिक्टरों को बन्द करने का निर्णय ले लिया।  भारत के रत्नागिरी मंे बनाए जा रहे परमाणु प्लान का विरोध बढ़ा, जिसमें जनता ने विरोध कर सरकारी सम्पति को नुकसान पहुँचाकर इस संघर्ष में भी एक व्यक्ति मारा गया।

उड़ीसा राज्य के जगत सिंह पुर जिले में कोरिया की स्टील कम्पनी पास्को की परियोजना का स्थानीय जनता  द्वारा प्रतिवाद  हक हकूम को लेकर किया, 12 बिलियन डालर के इस स्टील प्लांट का कांग्रेस ने भी विरोध किया है। किन्तु आखिरकार केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय ने इसे भी हरी झंड़ी दे दी है। इसमें सबसे नवीनतम घटना उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौंल गाँव (ग्रेंटर नौएड़ा) की है जहाँ दिल्ली आगरा के बीच निर्माणाधीन लेन वाले यमुना हाईवे एक्सप्रेस के लिए 43,000 हैक्टेयर किराये की भूमि का अधिग्रहण किया जाना है।

इसी तरह बलिया और नौएड़ा को जोड़ने गंगा एक्सप्रेस हाईवे मार्ग के लिए 33,000 एकड़ भूमि की आवश्यकता है। 1,000 किमी॰ लम्बे इस मर्ग के दोनों ओर बहुमंजिला आवास माॅल और आॅफिस होंगे परियोजना की अनुमानित लागत 70 हजार करोड़ है (इकाॅनामिक एवं सांख्यिकीय निदेशालय, कृषि एवं सहकारिता विभाग) 29/09/2010 के आधार पर। इसी तरह जमीन अधिग्रहण को लेकर नियमागिरी (उड़ीसा), दादरी (उ॰प्र॰) सहित अनेक हिस्सों में किसानों और सरकार के बीच संघर्ष जारी है।

उत्तराखण्ड़ में भी विशाल बाँध परियोजनाओं को लेकर जनासंतोष अभाव दिनों-दिन बढ़ रहा है। सरकार का जहाँ एक ओर कहना है कि पहाड़ में केवल रन आॅफ द रिवर प्रोजेक्टों को ही स्वीकृति दी जायेगी वहीं दूसरी ओर अलकनन्दा, भागीरथी और मन्दाकिनी में निर्माधीन बाँध परियोजनायें सुरंग आधारित बहाव को रोक कर बनाई जा रही है।

लोहारी नागपाला परियोजना जो अभी बन्द है, उसके चलते लगभग 60 किमी॰ तक गंगा सुरंगों में कैद होगी! इसी तरह पीपलकोटी में टी॰एच॰ड़ी॰सी की आज विद्युत परियोजना से चमोली तक 12 किमी॰ से अधिक नदी का हिस्सा सुरंगों में चला जायेगा लगभग यही स्थिति मंदाकिनी (केदारघाटी) और देवाल में बनाई जा रही सतलुज परियोजना के बनाने से हो रही है।

मन्दाकिनी घाटी में कुल 24 जलविद्युत परियोजनाएँ प्रस्तावित/निर्माणाधीन हैं, इस क्षेत्र में 82 इस लम्बे क्षेत्र में बाँध बन जाने के बाद 31 किमी॰ तक नदी सुरंगों में चली जायेगी। यदि भारत के जलआयोग की रिपोर्ट पर यकीन कर लिया जाय तो मन्दाकिनी नदी का जल स्तर 6 वर्ष पूर्व 35 से 50 घन मीटर प्रति सेकेण्ड़ था जो घटकर वर्ष 2012 में अब घटकर 13 से 15 सेंटी घन मीटर रह गया है।

इस स्थिति में उत्तराखण्ड़ की नदियों पर जिस तेजी से जल स्तर घट रहा है, उसके अध्ययन के उपरान्त ये तथ्य उभरता है कि क्या विशाल जल विद्युत परियोजनाएँ सफल हो पायेंगी? दूसरी तरफ बाँध समर्थक जो इसे रोजगार साधन मान रहे हैं, उन्हें परियोजना में क्या स्थाई रोजगार की गारंटी दे रखी है? यदि नहीं तो किस आधार पर हम इन योजनाओं का समर्थन कर रहे हैं? यह यक्ष प्रश्न सरकार और बाँध समर्थकों के बीच एक पहली बना हुआ है।

एक बड़ा सवाल परियोजना से प्रभावित जनता का जो विस्थापित श्रेणी में नहीं आती है, उनके जंगलों और नदी के जल बनाने के हक-हकूक और रोजगार जोड़ना प्रमुख मुद्दों पर सरकार निर्माणदायी संस्था और जनता के बीच कोई सरकारी अनुबन्ध न होने से यहाँ की जनता की वही स्थिति हो जायेगी, जो आज टिहरी बाँध से प्रतापनगर क्षेत्र के निवासियों की बनी हुई है। वे न प्रभावित गाँवों की सूची में हैं और न ही उनके पास आवागमन के साधन हैं! उनके मवेशियों के लिए बनचर क्षेत्र बचे हैं।

चमोली जनपद में विष्णुप्रयाग परियोजना से जो उत्पाद हो रहा है, वही सीधे नेशनल गिड़ में जिन किसानों की भूमि के ऊपर से होकर मैदान में पहँुचाया जा रहा है, उन्हें मामूली मुआवजा देकर जंगलों से भी अनदेखा किया जा रहा है। नापखेत और जंगलों के बीच से गुजरने वाली हाई टेशन लाइनों की 10 मीटर परियोजना में मवेशियों सहित ग्रामीणों की न घुसने की सूचना बाँध निर्माण कम्पनियों द्वारा चस्पा कर दी गई है, इस बीच हाई टेशन लाइनों की चपेट में आकर कई ग्रामीण और पशु अपनी जान दे चुके हैं। इस विषय में ना ही स्थानीय प्रशासनिक और ना ही शासन स्तर पर कोई नीति प्रभावित क्षेत्र के निवासियों के लिए बन सकी है!

राष्ट्रीय स्तर पर भू अधिग्रहण कानून 1980 का हो आज दिन तक देश भ्र में लागू है, जिसमें जनहित में संशोधन किए जाने की आवश्यकता है। इस अधिनियम के चलते भूमि अधिग्रहण और मुआवजे की राशि की दरें भी संशोधित नहीं हो सकी हैं। इस बारे में पहली बार हरियाणा राज्य ने पहला कर किसानों के हित में अपने भूकानून व्यवस्था कायम करते हुए यह निश्चित किया है, कि कोई भी व्यवसायिक एवं सरकार यदि जनहित में कोई जमीन अधिग्रहित करती है तो उसका मूल्य वर्तमान बाजारीभाव पर ही निर्धारित होगा। इन्हीं दो श्रेणियों में बाँटा गया है। एक व्यवसायियों के लिए और सरकार द्वारा अधिग्रहित की जाने वाली जमीन की दरों में भिन्नता रहेगी।

हरियाणा राज्य ने भूमि अधिग्रहण के लिए वार्षिक भत्ता और सह मुआवजा नीति की भी व्यवस्था की है, इसके तहत वर्तमान बाजार दर के अतिरिक्त एक निश्चित अवधि के लिए किसानों को वार्षिक भत्ता भी दिया जायेगा। हरियाणा की वर्तमान सरकार ने किसानों की जमीन अधिग्रहण के बदले में 8 से 20 लाख रूपये तक प्रति एकड़ जमीन कर भूमि निर्धारित करने के साथ आगामी 33 साल तक के लिए 15,000 रूपये वार्षिक भत्ता देने का भी प्राविधान किया है। इससे प्रतिवर्ष मंहगाई के आधार पर न्यूनतम 500 रूपये की वृद्धि की जायेगी।

इसके साथ ही सरकार की नवीनतम भूमि अधिग्रहण नीति के अन्तर्गत राज्य सराकर की एजेंसियाँ हरियाणा सहकारी विकास प्राधिकरण हरियाणा राज्य औद्योगिक इंफास्ट्रचर विकास विभाग उन किसानों को आवासीय एवं व्यावसायिक प्लाट भी देंगे जिनकी जमीनी अधिगृहित की जायेगी। प्रभावित किसानों को पुनः रोजगार दिलाने के उद्देश्य से 350 (अधिक) वर्ग गज के आवासीय प्लाट सहित 2.75 गुणा 2.75 मीटर के काॅमर्सियल बूथ की आजीविका चलाने के लिए दिए जायेंगे। पंजाब ने भी हरियाणा का अनुसरण करते हुए मोहाली के विकास के लिए विशेष कर अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने के लिए किसानों की अधिग्रहित की जाने वाली जमीन का सरकारी मूल्य प्रति एकड़ 1.5 करोड़ देने की घोषणा की है।

जबकि उ॰प्र॰ में यह दर 2.5 लाख रूपये प्रति एकड़ निर्धारित है। किन्तु उत्तराखण्ड़  बनने के बाद सरकार द्वारा इस दिशा में कोई सरकारी भू कानून बनाने की आज दिन तक आवश्यकता ही महसूस नहीं की है। पड़ोसी राज्य हिमाचल को देख लें वहाँ उच्च हिमालयी क्षेत्र के कोई भी विशाल बाँध परियोजना ऐसी नहीं है जिससे कि विस्थान जैसी समस्या से उन्हें जूझना पड़ा हो।


उत्तराखण्ड़ में विशाल सुरंग सहित बाँध परियोजना विरोध के पीछे पर्यावरण और गंगा की पवित्रता से अधिक ज्वलंत प्रश्न इस सम्वेदनशील हिमालय की भूगर्भीय संरचना का है, जो आपदा की दृष्टि से सर्वाधिक सम्वेदनशील है, कई किमी॰ नदी को सुरंगों में ड़ालने से परिवर्तीय सन्तुलन गड़बड़ाने का खतरा है। विगत वर्ष में भारी वर्षा के चलते हुए भू-गर्भीय से बाँध परियोजनाओं ने जिस तरह तबाही मचाई उससे स्पष्ट है कि भूगर्भीय हलचलों से विशाल बाँध परियोजनायें पहाड़ के भूगोल को कभी भी बद सकती है।

पर्यावरण मन्त्रालय भारत सरकार द्वारा उत्तराखण्ड़ में जिन बाँध परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई है, उनके उपरान्त राज्य सरकार द्वारा उनकी माॅनीटरिंग को पुख्ता व्यवस्था न होने से खेत-खलियान बंजर हो रहे हैं। अत्यधिक विस्फोटों के चलते चाई गाँव में आई दरारें और भूस्खलन से वहाँ रहने लायक परिस्थितियाँ नहीं हैं। कमोवेश यह स्थिति तपोवन, पीपलकोटी, देवाल और श्रीनगर में निर्माणाधीन बाँध परियोजनाओं की है, जिसके कारण प्रभावित जनता आन्दोलन के लिए उत्तेजित हो रही है। यहाँ बाँध समर्थकों से मेरा यह अनुरोध है कि तीन दशक पहले जिन नदियों पर छोटी जल विद्युत परियोजनाएँ बनी थी उनमें, पठियालधार (गोपेश्वर), उर्गम-हेलंग (जोशीमठ), पौड़ी गेंठीछेड़ा बहुत लम्बे समय से बन्द है। जिन्हें पुनः शुरू करने के लिए बाँध समर्थकों से अपेक्षा है।

हरियाणा की तरह उत्तराखण्ड़ सरकार भी बाँध और उद्योगपतियों के बीच कानूनी करारकर प्रति क्षेत्र के प्रति परिवार को स्थाई रोजगार की गारण्टी के साथ न्यूनतम दर पर बिजली और खेती का बाजारी भाव पर मुआवजा और मवेशियों के लिए वनचर की व्यवस्था सुनिश्चित कर सके तो हिमालय क्षेत्र में बाँध परियोजनाओं का विरोध करने वाला कोई हो ही नहीं सकता है।

उत्तराखण्ड़ के भूगोल और आज जनता के हितों की कीमत पर किसी भी परियोजना का निर्माण उचित नहीं है, सरकार को चाहिए हरियाणा और पंजाब की तरह अवश्य के लिए भू अधिग्रहण नीति को बनाते हुए सरकार कम्पनी और प्रभावितों को कार्य रोजगार योजना के अन्तर्गत आजीविका के लिए हिस्सेदारी और सीमित रूप से जल और जंगल पर आये परम्परागत अधिकारियों को कानूनी मान्यता दी जायेगी।

(डाॅ॰ योगेश धस्माना)

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Social researcher, Traveller, and Writer played diverse roles in the development sector, with a strong dedication for preservation of cultural heritage. Sharing my experince and insights on this website.