राजजात नहीं-नहीं साहब लोक जात कहिए

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उत्तराखण्ड की लोक परम्परा का उत्सव राजजात जो गढ नरेशों की अराध्य देवी नन्दा पवित्र की स्मृति में प्रति 10 वर्षों में एक बार आयोजित की जाती है, मान्यता है कि 9वीं शताब्दी में इस यात्रा की परम्परा शुरू हुई थी।
नन्दा उत्तराखण्ड में गढवाल कुमाऊँ की अराध्य देवी के रूप में पूजी जाती है। इसे लोक में ध्याण कहना एवं हिमालय पुत्री के रूप में भी पूजने की परम्परा गढवाल-कुमाऊँ में रही है। किन्तु मध्य कालीन इतिहास कहीं भी कोई साक्ष्य नहीं है कि यह यात्रा अनवरत रूप से चल रही है यदि होती तो ब्रिटिश प्रशासनिक रिकार्डों अथवा तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में इसके साक्ष्य अवश्य मिलते हैं। इतना जरूर है कि उत्तराखण्ड को नन्दा का मायका माना जाता है। और लोक विश्वास की मौखिक परम्परा में यह उत्सव धर्म और लोक आस्था के रूप में प्रचारित हुआ। इसका लिखित विवरण उत्तराखण्ड के 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक से कुछ अखबारों में अवश्य मिलता है। महज एक समाचार के रूप में ही सन् 1925 में गढ़वाली (जुलाई-अगस्त) में कुमाऊँ के अंचल की छंतौलियों के यात्रा में शामिल होने के उलेख मिलते हैं।
21वीं शताब्दी में बाजार के चलते मीडिया और अन्त पर बाजार की प्रभाव चलते इस यात्रा को ध्वनि और इलेक्ट्राॅनिक्स मीडि़या ने जिस तरह का प्रचार किया उससे इस लोक जात को एक उत्सव के रूप में नया मान्यता मिली। चूँकि अब राज राजाओं का युग समाप्त हो चुका है। समाज में कुछ उपनिषवादी एवं सामन्तवादी विचार के कारण इसी पहाड की प्राचीन तक और देश की विशालतम लम्बी पद यात्रा (260 किमी॰) के के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
इस बारे में मेरा यह कहना है कि इसे राजरात नहीं बस मीडि़या और सम्बन्धी विशेषकर लोकजात के रूप में देखें और लिखें। इस सामाजिक-धार्मिक यात्रा के बहाने गढ़वाल-कुमाऊँ के दूरस्थ क्षेत्रों को एक नियमित नीति के तहत पर्यटन से जोड़ा जाना चाहिए। सन् 1903 में गढ़वाल-कुमाऊँ के दूरस्थ और उपेक्षित क्षेत्रों को जोड़ते हुए सैलानियों के लिए जिस कर्जन ट्रेक का निर्माण किया गया था, वह आज उपेक्षित है। इसे विलेज टूरिज्म के रूप में विकसित कर स्थानीय अर्थ व्यवस्था को मजबूती दी जा सकती है। घाट विकास खण्ड के कुण्ड क्षेत्र को इस यात्रा के एक दूसरे महत्वपूर्ण केन्द्र होने के नाते घाट, थराली और देवाल को कर्जन ट्रेक के साथ विकसित कर स्थानीय निवासियों को तीर्थ के साथ साहसिक पर्यटन से जोडकर रोजगार के नए अवसर दिलाए जा सकते हैं। इसके साथ ही राजजात समिति इस यात्रा के बहाने गढ़वाल-कुमाऊँ की परम्परागत ट्रेकिंग मार्गों के सुदृढ़ीकरण के लिए शासन से धन की मांग करती तो ज्यादा उचित होगा। ऐसा करके हम पहाड़ों में साहसिक पर्यटन के लिए देश भर के युवाओं को आकर्षित कर सकते। दुर्भाग्यवश न राजजात समिति और नहीं हमारे जन प्रतिनिधि शासन-प्रशासन के समक्ष इसके लिए कोई ठोस योजना प्रस्तुत सके, देश के भीतर संचालित धार्मिक यात्राओं में यह अकेली ऐसी यात्रा है जो पूरी तरह सरकार पर आधारित है। अमरनाथ की यात्रा पूरी तरह श्राइन बाई द्वारा आयोजित की जाती है। जम्मू कश्मीर द्वारा श्राइन बोर्ड़ को अमर नाथ यात्रा मार्ग में आने वाली जमीन को स्थानांतरित कर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए कुछ धनराशि प्रारम्भ में ही उपलब्ध कराई जाती इसके पश्चात बोर्ड़ द्वारा अपनी वेब साइट के जरिये तीर्थ यात्रियों की निश्चित संख्या पता करने के लिए उनके आॅन लाइन फाॅर्म भरवाकर स्वास्थ्य की जाँच के लिए केन्द्र निर्धारित किये गये हैं। इस सुव्यस्थित नीति के कारण ही श्राइन बोर्ड़ माह जून तक अमरनाथ यात्रा में भाग लेने वाले यात्रियों का ब्यौरा नेट पर भी उपलब्ध करा देता है। इसके अतिरिक्त यात्रा मार्ग के पड़ावों पर यात्रियों की संख्या और भोजन आवास की व्यवस्था के बारे में सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध करा दिया जाता है। सभी पड़ावों को संचार साधनों से कुशलता से जोड़ा गया, क्या हमारी राजजात समिति ने इस तरह की कोई तैयारी की है? क्या हमारी समिति पड़ावों पर रूकने वाली यात्रियों की क्षमता के बारे में अथवा पार्किंग के बारे में कोई सर्वे अब तक करा चुकी है? सम्भवतः नहीं! फिर हम हिमालय के इस महाकुम्भ की यात्रा को आपदा रहित बनाने के लिए किस तरह के प्रयास कर रहे हैं। यह भी एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है।
वर्तमान इस लोक जात के लिए जनता में मीडि़या द्वारा जिस उत्साह की बात की जा रही है, उसके चलते कुमाऊँ-गढ़वाल की सीमावर्ती जनता भी यात्रा में भाग लेने के लिए सरकार से अपने यात्रा मार्गों को दुरस्थ करने के लिए धन की मांग कर रही है। इस अप्रत्यासित उत्साह के कारण इस यात्रा को निरापद सम्पन्न कराना प्रशासन के लिए भी एक चुनौती बन गया है। रूपकुण्ड़ से आगे ज्यूँरागली शिखर (17 हजार फीट ऊँचाई), होमकुण्ड़ और यहाँ से वापसी पर चन्दनियाँ घाट से लाता खोपड़ी और सुतोल तक का लगभग 30किमी॰ का मार्ग अति संवेदनशील और जोखिम भरा है। वर्षा ऋतु के कारण इसमें दुर्घटना की सम्भावना और भी बढ़ जाती है, ये वह क्षेत्र है जहाँ यात्रियों के लिए भी अधिकतर स्थानों पर कैम्पिंग करना भी सम्भव नहीं है। इस कारण आपदा प्रबन्धन को भी मजबूत किया जाना किसी चुनौती से कम नहीं है।
राजजात समिति और उससे जुड़े लोगों के लिए यह उचित होगा कि वह इस यात्रा के बहाने गढ़वाल-कुमाऊँ के बीच पर्यटन सर्किट को विकसित करते हुए उपेक्षित तीर्थ और पर्यटन स्थलों को प्रचारित करने के लिए कोई प्रस्ताव शासन को प्रस्तुत कर सकें तो इसे राजजात समिति की उपलब्धि ही माना जायेगा।

डाॅ॰ योगेश धस्माना

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Social researcher, Traveller, and Writer played diverse roles in the development sector, with a strong dedication for preservation of cultural heritage. Sharing my experince and insights on this website.