Not much done on Pre-Disaster Management in India. Had we learnt from foreign countries on how to tackle disaster, the massive destruction in Uttarakhand could have been reduced considerable. We have not done much work on Pre-Disaster Management as done in many foreign countries.
विदेशों से सीखते तो नहीं होती यह तबाही
कात्यायनी उप्रेती
बादल फटना… चंद सालों में इस घटना को पहाड़ ही नहीं, बल्कि हर इलाका जानने लगा है। पिछले चार-पांच सालों में उत्तराखंड, लद्दाख, हिमाचल, नॉर्थ ईस्ट के पहाड़ों में यह कुदरती खतरा तबाही बनकर टूटा है। लेकिन यह सोचना गलत होगा कि इस कदर बादल फटने या भूस्खलन की घटनाएं पिछले चंद सालों से ही हो रही हंै।
जियॉलजिस्ट कहते हैं कि कुदरती प्राकृतिक घटनाएं सालों से हो रही हैं और आगे भी होती रहेंगी, लेकिन टेक्नॉलजी के दौर में इनकी वजह से तबाही होना बड़ा अफसोस भरा है। एक्सपर्ट्स कहते हैं, इन नेचरल हैजर्ड को मैनेज करना मुश्किल नहीं है। कई देश अपने स्मार्ट डिजास्टर मैनेजमेंट के साथ हमारे सामने उदाहरण हैं।
एल्प्स, जापान… हर जगह है रिस्क : हिमालय ही नहीं वेस्टर्न घाट, यूरोप में एल्प्स माउंटेन रेंज, जापान… हर जगह भूस्खलन या अचानक बाढ़ आने की घटनाएं होती रहती हैं। लेकिन विदेशों में इन इलाकों का डिवेलपमेंट सिस्टम से होता है। नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजैस्टर मैनेजमेंट, दिल्ली में असोशिएट प्रोफेसर डॉ सूर्यप्रकाश कहते हैं, एल्प्स रेंज में तो हिमालय से भी ज्यादा लैंडस्लाइड होते हैं। जापान में तो लैंडस्लाइड, ज्वालामुखी, भूकंप सब का खतरा है। लेकिन इन देशों में फिर भी बड़ी आपदाएं नहीं होतीं। आपने कभी स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड या जापान में उत्तराखंड जैसी मौतों की खबर सुनी भी नहीं होगी। एल्प्स रेंज या वॉलकेनो जोन वाले देशों में ऐसे इलाकों में खतरे का आकलन किया जाता है। साइट स्टडी, फील्ड मैपिंग, रिस्क असेसमेंट के बाद भूस्खलन को कंट्रोल करने के लिए रिसर्च की जाती है। इसके बाद रिस्क को घटाने के लिए काम किया जाता है। डिवेलपमेंट इंजीनियरिंग पर इस तरीके से काम किया जाता है कि हैजर्ड का प्रभाव कम से कम हो।
नहीं रोका जाता कंस्ट्रक्शन : ऐसे इलाकों में कंस्ट्रक्शन रोका नहीं जाता। इंजीनियर्स और डिजास्टर मैनेजमेंट एक्सपर्ट्स इलाके की जियॉलजी समझते हुए खास इमारतें डिजाइन करते हैं, जो रिस्क झेल सकें। जापान के खतरनाक भूकंप जोन में ऐसी ही बिल्डिंगें हैं। इन देशों में अगर आपको बिल्डिंग बनानी हो, तो हैजर्ट प्रूफ तकनीक का इस्तेमाल करना ही होगा। डिजास्टर मैनेजमेंट एक्सपर्ट जियॉलजिस्ट डॉ. आर. पाण्डे कहते हैं, कई देशों में तो रूल है कि अगर आपने हैजर्ड इंजीनियरिंग के हिसाब से कंस्ट्रक्शन नहीं किया, तो भारी प्रीमियम देना होगा। न्यूजीलैंड इसका उदाहरण है।
यहां दोहराई जाती हैं गलतियां : जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर अडवांस साइंटिफिक रिसर्च में जियोडायनामिक्स के ऑनरेरी प्रफेसर डॉ. के. एस. वल्दिया कहते हैं कि 50 साल पहले भी छोटे से इलाके में, बहुत कम समय में जोरदार बारिश (क्लाउड बर्स्ट) होती थी, लेकिन तब हम ज्यादा तैयार रहते थे। उस वक्त छोटे हाथ से बने पुल हटा दिए जाते थे, निकासी के लिए नालियों को साफ कर दिया जाता था, मलबा हटा दिया जाता था। लेकिन अब गलतियां दोहराई जाती हैं। डॉ. पाण्डे के मुताबिक, उत्तरकाशी में भागीरथी नदी में आई बाढ़ भी नेचरल घटना है। इससे पहले भी वहां बाढ़ आ चुकी है, लेकिन नदी किनारे का कंस्ट्रक्शन बंद नहीं हुआ। नदी कुछ-कुछ सालों में रास्ता बदलती है, इसलिए डिवेलपमेंट करते वक्त उसे बफर जोन दिया जाना जरूरी है।
प्री डिजास्टर मैनेजमेंट गोल : एक्सपर्ट्स का कहना है कि भारत में प्री-डिजास्टर मैनेजमेंट पर काम नहीं कियाजाता, बल्कि पोस्ट डिजास्टर मैनेजमेंट पर सोचने बैठते हैं।अमेरिका, चीन, न्यूजीलैंड, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया,जापान ने प्री-डिजास्टर मैनेजमेंट पर इतना काम किया है कि अगर वहां कोई डिजास्टर होता भी है, तो वह उसे फौरन कंट्रोल कर लेते हैं। जापान में आई सूनामी इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।